बस एक लम्हे का झगडा था ,
दर-ओ-दीवार पर ऐसे छलाके सी गिरी आवाज़, जैसे कांच गिरता है,
हर एक शै मे गई उडती हुई, जलती हुई किरचें ,
नज़र मे,बात मे,लहजे मे,सोच और सांस के अन्दर,
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन,
उसी आवाज़ के टुकडे उठा के फर्श से उस शब्, किसे ने काट ली नवज़.
न की आवाज़ तक कुछ की कोई जाग न जाये ,
बस एक लम्हे का झगडा था ...
रचना - गुलज़ार साहब