जब - जब उम्मीद जागी के मंज़िल पास ही है, तब - तब मै जग उठा......
आखें खुली तब पाया मैंने , के न तो कोई रास्ता था, न ही कोई मंज़िल...
थी तो बस रात की ख़ामोशी और घुप्प अँधेरा.....चरों तरफ...अस्तव्यस्त सा फैला हुआ....
आसमान की तरफ देखा तो ऐसा लगा मानो किसी ने अनगिनत टिमटिमाते, जुग्बुगाते से चराग जला दिए हैं ...
आज तो दीवाली नहीं .... ना ही आज कोई उर्स सजा है...
बहुत सर खपाने के बाद इस नतीजे पर आ पहोचा....
के ये उसी फलक पर सजे वो आफ़ताब हैं जिन्हे मुझ जैसे कई हजारों रोज़ रात को अपनी उमीदों के साथ जलते है...
और शाज्र्र की पहली किरण के साथ भुझा देते हैं .
अब समझ मै आ गया ...ये दिन और रात का रिश्ता ....
उमीदों का बाँधना और हर सुबह टूटना....
फिर नई सिफूरती के साथ अपनी दिनचर्या मै जुटना....
फिर चलना और चलना.......और चलना...../
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