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Monday, August 9, 2010

बस एक लम्हे का झगडा था...


बस एक लम्हे का झगडा था ,
दर-ओ-दीवार पर ऐसे छलाके सी गिरी आवाज़, जैसे कांच गिरता है,
हर एक शै मे गई उडती हुई, जलती हुई किरचें ,
नज़र मे,बात मे,लहजे मे,सोच और सांस के अन्दर,
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन,
उसी आवाज़ के टुकडे उठा के फर्श से उस शब्, किसे ने काट ली नवज़.
न की आवाज़ तक कुछ की कोई जाग न जाये ,
बस एक लम्हे का झगडा था ...

रचना - गुलज़ार साहब

Saturday, June 26, 2010

"बचपन "



खुदसे चुराकर वक़्त चंद्द लम्हों का .....चलो कहीं दूर जाएँ .....
ढलता सूरज देखें ....चेहरे पर चांदनी जगाएं ....
झील कनारे जाएँ और खुलके कुछ गुनगुनाएं ......
बहुत हुआ ये दुनियादारी का खेल.... आब फिर बचपन ले आएँ....
कितने दिनों तक यूँ ही ओढे ... बेजान रंगों के दोशाले ....
आब तो वक़्त है इसे इन्द्रधनुष के रंगों मे सजाएँ...
भीगें खुलकर बरसते मेघों में .....छीकते हुए घर वापस आएँ ...
फिर मम्मी की डांट के डर से....कोई नया बहाना बनाएँ......
आब तो खुद से ही हर खेल मे ....कच्ची रोटी बन्न जाएँ......
सपनो मे आब गुड्डे -गुड़ियों और अच्छा खाना ही आए...
करें जो भी वो हो अपनी मर्ज़ी का ....कोई न रोक - टोक लगाएँ......
खुदसे चुराकर वक़्त चंद्द लम्हों का ......चलो कहीं दूर जाएँ....
खुदसे ही खुदका बचपन हम वापस ले आएँ....

Thursday, June 24, 2010

चलते चलते बस युही .....




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मै चलता गया , चलता गया और चलता गया ,
रास्ता कभी मंजिल तक पहुचा ही नहीं.....
जब - जब उम्मीद जागी के मंज़िल पास ही है, तब - तब मै जग उठा......
आखें खुली तब पाया मैंने , के न तो कोई रास्ता था, न ही कोई मंज़िल...
थी तो बस रात की ख़ामोशी और घुप्प अँधेरा.....चरों तरफ...अस्तव्यस्त सा फैला हुआ....
आसमान की तरफ देखा तो ऐसा लगा मानो किसी ने अनगिनत टिमटिमाते, जुग्बुगाते से चराग जला दिए हैं ...
आज तो दीवाली नहीं .... ना ही आज कोई उर्स सजा है...
बहुत सर खपाने के बाद इस नतीजे पर आ पहोचा....
के ये उसी फलक पर सजे वो आफ़ताब हैं जिन्हे मुझ जैसे कई हजारों रोज़ रात को अपनी उमीदों के साथ जलते है...
और शाज्र्र की पहली किरण के साथ भुझा देते हैं .
अब समझ मै आ गया ...ये दिन और रात का रिश्ता ....
उमीदों का बाँधना और हर सुबह टूटना....
फिर नई सिफूरती के साथ अपनी दिनचर्या मै जुटना....
फिर चलना और चलना.......और चलना...../
- "निधि"